(राज: भाग १४ - चित्रलेखा)
पिछले भाग में आपने पढ़ा -
गोपाल के लापता होने की खबर सुनकर सभी परेशान हो जाते हैं। वे सब तुरंत आशुतोष जी के घर पहुॅ॑चते हैं। वहाॅ॑ वे सब आशुतोष जी को पिछले कुछ दिनों से घटने वाली घटनाओं की जानकारी देते हैं। ऑ॑चल के घर से फोन आने पर उन सब को पता चलता है कि आकांक्षा की तबीयत फिर से खराब हो गई है। इसी दौरान उन्हें यह भी पता चलता है कि चैतन्य के पास जो रुमाल है वह अनामिका का है। आशुतोष जी उन सबको होलाष्टक के बारे में बताते हैं वे उन्हें बताते हैं कि यह समय बहुत ही खराब होता है और इस समय कोई भी अच्छे कार्य नहीं किए जाते। इस समय का फायदा उठाकर कोई अपने दुष्कृत्यों को पूरा करने की कोशिशें कर रहा है। आशुतोष जी उन्हें बताते हैं कि उन्हें पता चल गया है कि उस डायन की कहानी क्या है। यह सुनकर सभी चौंक उठते हैं।
अब आगे :-
(राज: भाग १४ - चित्रलेखा)
भाग १४ - चित्रलेखा
"आप सच कह रहे हैं!" अमित ने अपनी गोल हो चुकी ऑ॑खों से उन्हें देखते हुए कहा।
"इस तरह का झूठ बोलने का ना तो समय है और ना ही मेरी आदत।" आशुतोष जी ने अमित पर उलाहना पूर्ण दृष्टि डालते हुए कहा।
"जी नहीं, मेरा वो मतलब नहीं था।"अमित ने झेंपते हुए कहा।
"परन्तु आपको किसने बताया? मेरा मतलब ये है कि यहाॅ॑ तो कोई इस बारे में बात करना नहीं चाहता और आपको भी इस विषय में पहले कुछ पता नहीं था। फिर आखिर आपको ये पता कैसे चला?" गोविंद अचरज से बोला।
यह सुनकर आशुतोष जी ने पहले गोविंद की ओर देखा फिर एक-एक करके सबके चेहरों पर दृष्टि डाली, जो उत्सुकता से उन्हीं की तरफ देख रहे थे।
"देखो! जीवन चक्र का नियम है कि जो जन्मा है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। इस दुनिया में हर एक इंसान इस कटु सत्य से अवगत है, फिर भी हम इंसान भौतिक मोह माया में फॅ॑स ही जाते हैं। मैं भी ऐसे ही एक मोह में फॅ॑स गया और वो मोह है एक ऐसे साथी का, जिसके साथ हम जीवन के हर कठिन समय का सामना हॅ॑सते-हॅ॑सते कर सकते हैं। और वो साथी तुम्हारे पिताजी थे गोविंद। उनका इस तरह अचानक चला जाना मेरा मन कभी स्वीकार नहीं कर सका। इस बार मेरा मन भी विद्रोह कर उठा। मुझे पता है तुम सब भी उसी समय से इस बाबत खोजबीन कर रहे हो और जितना तुमने बताया है उस हिसाब से तो तुम्हारे हाथ ज्यादा कुछ आया नहीं है।" आशुतोष जी बोले।
"आपने बिल्कुल सही कहा। इतने महीनों से हाथ पैर मारने के बाद भी हमारे हाथ ज्यादा कुछ आया नहीं और जो कुछ भी हाथ लगा है, उसके मायने समझ में नहीं आ रहे हैं।" गोविंद निराशा से बोला।
"पर मैंने यह नोटिस किया है कि हाल के दिनों में ये घटनाऍ॑ बढ़ गई हैं और अभी आपने ही याद दिलाया कि अभी होलाष्टक का समय भी चल रहा है।" चैतन्य ने अपनी बात रखी।
"हाॅ॑, हो तो बहुत कुछ रहा है अभी और हमें इन सारे घटनाक्रमों को जोड़कर इसका सही खाका तैयार करना पड़ेगा, क्योंकि जो कुछ भी हो रहा है या हमें पता है, सब जानकारियाॅ॑ बिखरी हुई सी हैं। इसलिए हम कुछ भी सही तरीके से देख या समझ नहीं पा रहे हैं।" आशुतोष जी ने गंभीरता से कहा।
"इ त आप सही बतिया रहे हैं। स्स्साला! समझे नाही आत है कि कहाॅ॑ से सुरु है अउर कउन सा दिसा में जात है।" राजू ने बड़बड़ा कर कहा।
सब ने उसकी ओर देखा, जिससे राजू थोड़ा सा सकपका गया। आशुतोष जी उसकी ओर देखकर मुस्कुराए।
"पर इसका पहला सिरा तो उस महल वाली डायन के साथ जुड़ा है। उसके बारे में कोई बताता ही नहीं तो हमें पता कैसे चलेगा? मुझे तो लगता है मेरे घर वाले भी काफी कुछ जानते हैं पर जाहिर सी बात है कुछ बोलेंगे नहीं।" अमित ने कहा।
"पर अब मुझे बहुत कुछ पता है।" आशुतोष जी उन सब पर गहरी निगाहें डालते हुए बोले।
"क्या पता है?" ऑ॑चल ने अपनी ऑ॑खों को सिकोड़ कर गंभीर आवाज में पूछा।
"मुझे शुरू से पता था कि इस गाॅ॑व में हमें कुछ पता नहीं चलने वाला है। गोविंद के पिताजी की मृत्यु के पश्चात मैं अपने मन में मची उथल-पुथल को शांत करना चाहता था। इसलिए सबसे पहले मैंने इसकी तह या ये कहें इसकी शुरुआत में जाना चाहता था। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मैं पिछले कई महीनों से देश के ऐसे कई मंदिरों के दर्शन कर चुका हूॅ॑, जहाॅ॑ तांत्रिक क्रियाऍ॑ होती हैं।" आशुतोष जी ने उन सब को बताया।
(राज: भाग १४ - चित्रलेखा)
"अरे बाबा! सच में मंदिरों में इ सब होत है का? मतबल हम कुछ-कुछ सुने त हैं, पर कछु खास जानत नाही।" राजू ने अपनी अनभिज्ञता जाहिर की।
"हाॅ॑, हमारे देश में ऐसे कई मंदिर हैं जहाॅ॑ तांत्रिक क्रियाऍ॑ संपन्न की जाती हैं, जैसे उड़ीसा का बेताल मंदिर, आसाम का कामाख्या मंदिर, उज्जैन का कालभैरव मंदिर, बंगाल का तारापीठ मंदिर और ऐसे ही कई मंदिर हैं, जिनके दरवाजे पर मैं अपने सवालों के जवाब लेने गया और आखिर में मेरी तलाश बंगाल के हतेश्वरी में स्थित शून्य मंदिर में खत्म हुई।" आशुतोष जी ने बताया।
"हतेश्वरी का शून्य मंदिर!!" एक साथ सभी के मुॅ॑ह से निकला।
"हाॅ॑! बंगाल के तत्कालीन महाराज जयनारायण घोषाल ने १८१४ में इस प्रथम शून्य मंदिर का निर्माण करवाया था। इसे गुरू मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर का निर्माण योग और तंत्र साधना हेतु ही करवाया गया था। इस मंदिर की बनावट अष्टकोणीय है और इसके आठ दरवाजों में एक गुरू का था और बाकी सात के नाम सप्तपुरियों (अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका और पुरी ) के नाम पर रखे गए हैं। इस तीन मंजिला मंदिर के प्रथम तल में गुरू वशिष्ठ, द्वितीय तल में राधा और तृतीय तल में किसी की भी मूर्ति नहीं है, इसलिए इसे शून्य का प्रतीक माना जाता है। योग-साधकों और तांत्रिकों के अनुसार शून्य मंदिर की अहमियत सबसे ज्यादा है। शून्य को प्राप्त करना ही सबसे बड़ी तपस्या है क्योंकि शून्य उस परम पिता का प्रतिनिधित्व करता है। तंत्र-साधना के लिए ये अत्यंत आवश्यक है कि आपका कोई गुरू हो। मंदिर के प्रथम तल पर गुरू और अंतिम तल पर शून्य इस बात का द्योतक है कि एक गुरू के मार्गदर्शन से शुरू करके अंत में उस शून्य को प्राप्त कर लेना ही सच्ची तंत्र-साधना है और यही साधना की चरम सीमा है। यही वो अवस्था है, जहाॅ॑ हर चीज अनंत होने लगती है।" अपने ही ख्यालों में खोए आशुतोष जी ने अपनी बात खत्म कर सबकी तरफ देखा।
सभी के मुॅ॑ह आश्चर्य से खुले हुए थे। अब किसकी समझ में क्या और कितना आया, वो ही बता सकते थे।
"लगता है कि बोरिंग लेक्चर कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया।" आशुतोष जी ने उनके चेहरों की ओर देखकर कहा।
इस बार किसी ने भी उनकी बात काटने की जहमत नहीं उठाई, बस एक झेंप से भरी हुई मुस्कुराहट दे दी।
"अब बूझे की नाही, काहे को सब लोग इको सनकी कहत है। हम का पूछत हैं, इ का बतावत हैं।" आशुतोष जी की बातों से बोर होते हुए राजू ने फुसफुसा कर चैतन्य से कहा।
"श्श्श!" चैतन्य ने अपने होंठों पर ऊॅ॑गली रखकर तिरछी नजर से राजू को चुप रहने का इशारा किया।
"पर आपके वहाॅ॑ जाने की क्या वजह थी?" अचानक ऑ॑चल ने सवाल पूछा।
"इसके लिए।" ऐसा कहते हुए आशुतोष जी ने उन सब के सामने अपनी मुट्ठी खोल दी, जिसे थोड़ी देर पहले ही उन्होंने अपने कुर्ते की जेब में डाला था।
सब लोग ऑ॑खें फाड़-फाड़ कर उस काली पड़ चुकी चाॅ॑दी की चाबी की ओर देख रहे थे।
"इ त चाबी है!" राजू ने कहा।
"ओहो! बताए के शुक्रिया। बुड़बक! इ त हम सब को भी दिखत है, पर इ है कउन से ताले की चाबी?" शुभम ने राजू को डपटते हुए कहा।
"उस ताले की जिसके अंदर हमारे सारे सवालों के जवाब बंद है।" आशुतोष जी बोले।
"और कहाॅ॑ है वो ताला?" चैतन्य ने अपनी एक भौंह को चढ़ाते हुई पूछा।
"पता नहीं!" आशुतोष जी की इस बात ने सबको चौंकाया।
"मतलब!" गोविंद ने आश्चर्य से पूछा।
(राज: भाग १४ - चित्रलेखा)
"मतलब ये कि इतने प्रयासों से मैंने चाबी तो हासिल कर ली है, पर इस चाबी का ताला कहाॅ॑ है ये मुझे मालूम नहीं है।" आशुतोष जी के स्वर में निराशा थी।
"पर.... जिसने भी आपको ये चाबी दी है, क्या उसे भी पता नहीं है?" अमित ने कहा।
"नहीं, क्योंकि ये चाबी उनकी नहीं थी। बल्कि किसी और ने उनको अपनी हिफाजत में रखने के लिए दी थी।" आशुतोष जी ने बताया।
"किसी और ने! पर किसने?" गोविंद ने अधीरता से पूछा।
"तांत्रिक श्रेष्ठ देवेन्द्र ने।"
इस नाम को सुनकर सभी भौंचक्के रह गए और एक दूसरे का मुॅ॑ह देखने लगे। शायद उन सभी ने इस नाम को पहली बार सुना था।
"अब इ कउन है?" राजू ने फिर से बेवकूफ की तरह पूछा।
आशुतोष जी ने राजू की ओर देखा फिर गहन चिंतनमुद्रा में आकर बोले, "तांत्रिक श्रेष्ठ देवेंद्र वहीं तांत्रिक हैं, जिन्होंने उस समय डायन के काले जादू को काबू में किया था।"
"ओ तेरी!" शुभम उत्साह से उछला।
"क्या तांत्रिक श्रेष्ठ देवेंद्र के बारे में आपको उसी शून्य मंदिर में पता चला?" चैतन्य ने पूछा।
"नहीं, बल्कि यही तो वह नाम था जिसके सहारे मैंने अपनी खोजबीन की मुहिम शुरू की थी।" आशुतोष जी ने कहा।
"मतलब कि इनके बारे में आप पहले से जानते थे।" गोविंद ने कहा।
"हाॅ॑। भला मैं कैसे नहीं जानूॅ॑गा क्योंकि तांत्रिक श्रेष्ठ देवेंद्र का संबंध हमारी ही वंशावली से है।" आशुतोष जी ने धमाका किया।
"क्याऽऽऽऽऽ?"
"पर... जब आप हमारी मुहिम के बारे में भी शुरू से जान रहे थे, तो आपने हमें ये पहले ही क्यों नहीं बताया?" गोविंद ने सवाल किया।
"क्योंकि... तब इसे तुम्हें बताने का कोई औचित्य नहीं था। वैसे भी तुम्हारी खोजबीन का दायरा इस गाॅ॑व के अंदर ही था। मुझे नहीं लगता कि तुम लोग मेरी तरह महीनों बंजारों की तरह भटक सकते थे। क्यों, सही कहा ना!" आशुतोष जी ने कहा।
आशुतोष जी की इस बात को सुनकर सभी एक दूसरे का मुॅ॑ह देखने लगे। बात तो आशुतोष जी ने बिल्कुल सही कही थी। उनमें से कोई भी ऐसा नहीं था, जो उस गाॅ॑व से अपनी मर्जी से बाहर जा सके। सबके चेहरे लटक गए।
उन सब के लटके हुए चेहरों को देखकर आशुतोष जी ने कहा, "क्या हुआ? कैसे हुआ? इन बेकार के सवालों को छोड़कर हम अपने मकसद की बात करें तो बेहतर होगा।"
"आप सही कह रहे हैं। हमें अपने उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।" चैतन्य ने कहा।
"अब मैं तुम्हें एक बार में सारी बातें बताता हूॅ॑। तांत्रिक श्रेष्ठ देवेंद्र हमारी ही वंशावली के एक बहुत ही नामी तांत्रिक रहे हैं। हमारा वंश हमेशा से ही मंदिरों में पूजा अर्चना करने का कार्य करता रहा है, परंतु तांत्रिक श्रेष्ठ देवेंद्र की रूचि काले जादू के बारे में जानने की ज्यादा रही थी। अपनी इसी उत्कंठा को शांत करने के लिए उन्होंने गृह त्याग कर दिया था और देश के विभिन्न मंदिरों में ज्ञान प्राप्ति और साधना हेतु भटकते रहे। अल्पायु में ही उन्होंने अपनी कठोर साधना से सिद्धि प्राप्त कर ली और अंत में बंगाल के शून्य मंदिर में तंत्र साधना करने लगे।" सभी तल्लीनता से आशुतोष जी की बातें सुन रहे थे।
"पर, आप तो कह रहे थे कि आपको डायन के विषय में कुछ जानकारी मिली है और अभी आप कह रहे हैं हमारे सवालों के जवाब उस ताले में बंद है जो अभी भी लापता है।" गोविंद ने सवाल किया।
"जब मैं शून्य मंदिर में था, तब वहाॅ॑ के एक साधक ने मुझे वो कहानी बताई, जो तांत्रिक श्रेष्ठ देवेंद्र ने उस मंदिर के अन्य साधकों को बताई थी और फिर इस चाबी को तब तक सुरक्षित रखने का निवेदन किया था, जब तक इस चाबी को लेने के लिए कोई आ नहीं जाता।" आशुतोष जी बताते गए।
(राज: भाग १४ - चित्रलेखा)
"तो क्या उन्होंने आपको चाबी ऐसे ही दे दी!" अमित ने आश्चर्य से कहा।
आशुतोष जी पहले तो मुस्कुराए फिर उन्होंने कहा, " उफ्फ! तुम सब को क्या लगता है? ये चाबी हासिल करना इतना आसान था क्या? ना जाने कितने सवालों और परीक्षणों से गुजरने के बाद मुझे ये चाबी हासिल हुई और अब उन सब की बात करना बेकार ही है।"
सभी ने एक धीमी हुॅ॑कार भरी।
मुझे लगता है सबसे पहले उसी कहानी से शुरुआत करनी चाहिए। उसके बाद क्रमवार हर घटना को जोड़ते हुए हमें एक निश्चित रूप रेखा तैयार करनी पड़ेगी।" आशुतोष जी ने कहा।
"जी, कहिए। हम सभी सुन रहे हैं।" चैतन्य की ये बात सुनकर सभी ने सहमति में अपना सिर हिलाया।
आशुतोष जी ने एक गहरी साॅ॑स ली और फिर उन सबके सामने एक टेबल के ऊपर बैठ गए। सभी साॅ॑स रोके उस कहानी को सुनने के लिए तत्पर हो उठे, जिसे ना जाने कब से और कितनी पीढ़ियों से सब से छिपाया जा रहा था।
"तो बात आज से करीब डेढ़ सौ साल पहले की है। रियासत देवगढ़ हमारे देश की एक बहुत ही छोटी सी रियासत थी। उसके तत्कालीन महाराज ४० वर्षीय वीरभद्र सिंह बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व के पराक्रमी और बुद्धिमान व्यक्ति थे। अपनी छोटी सी रियासत की देखभाल वो अपने पूरे दिल से किया करते थे।
कहते हैं कि एक बार वो शिकार के लिए जंगल में गए थे, जहाॅ॑ वो एक हिरण का पीछा करते हुए अपने दल से अलग हो गए और जंगल में भटक गए थे। दो दिनों तक भूखे प्यासे वो भटकते रहे। फिर उन्हें एक जहरीले साॅ॑प ने काट लिया था और वो मूर्छित हो गए थे। जब उन्हें होश आया, उन्होंने खुद को एक झोपड़ी में पाया। उस झोपड़ी में एक 30-35 वर्ष की दुबली पतली साधारण सी दिखने वाली औरत थी, जो इलाज कर रही थी। राजा ने अपनी जान बचाने के लिए उस औरत का आभार व्यक्त किया और जाने की अनुमति माॅ॑गी। उसी वक्त उस झोपड़ी में एक 19-20 साल की अत्यंत सुंदर युवती का आगमन हुआ। राजा ने जब उस युवती को देखा तो बस उसे देखता रह गया। राजा ने उस औरत से उस युवती के बारे में पूछा। उस औरत ने बताया कि उसका नाम मंजरी है। वो स्वयं एक विधवा औरत है, जो समाज के तानों से परेशान होकर यहाॅ॑ अकेली इस जंगल में रहती थी। करीब 10 साल पहले इन्हीं जंगलों में ये सुंदर युवती उसे भटकती हुई मिली थी। पता नहीं उसके साथ क्या हुआ था कि उसकी पुरानी सारी स्मृति मिट चुकी थी। तब से मंजरी ने उस युवती का पालन-पोषण किया और उसे नाम दिया-
"चित्रलेखा"
राजा वीरभद्र सिंह उनकी सहायता से जंगल से बाहर निकल कर आ गए। महल लौटने के बाद वे बदल से गए थे। चित्रलेखा की मोहक छवि उनके मन में बस गई थी। उन्होंने उसे भुलाने के कई प्रयत्न किए, किंतु ऐसा कर ना सके। राज्य के कार्यों से उनका मन उचट सा गया था। जब उनके बुजुर्ग प्रधानमंत्री को सारा किस्सा मालूम हुआ, तब उन्होंने सैनिकों से चित्रलेखा की खोज करवाई परंतु उस घने जंगल में वे उसे नहीं खोज पाए। अंत में स्वयं राजा वीरभद्र सिंह उस जंगल में गए और उस नदी की खोज की। उन्होंने उस नदी के किनारे ही चित्रलेखा का इंतजार किया। एक पूरा दिन उसके इंतजार में गुजारने के बाद जब अगले दिन चित्रलेखा उस नदी के किनारे पानी भरने आई, तब राजा वीरभद्र सिंह ने बिना कोई देरी किए अपने मन की बात उसके सामने रख दी और उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा।
(राज: भाग १४ - चित्रलेखा)
चूंकि मंजरी ने चित्रलेखा का पालन पोषण किया था इसलिए चित्रलेखा ने इसका निर्णय उसी पर छोड़ दिया। मंजरी ने भरे ह्रदय से राजा वीरभद्र सिंह का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। राजा वीरभद्र सिंह ने मंजरी से भी महल में साथ चलने का निवेदन किया। चित्रलेखा के जोर देने पर मंजरी भी महल में साथ चलने के लिए तैयार हो गई। महल में पहुॅ॑चने के कुछ दिनों के बाद ही राजा वीरभद्र सिंह और चित्रलेखा का विवाह हो गया।
चित्रलेखा बहुत ही ज्यादा खूबसूरत थी। राजा वीरभद्र की दो रानियाॅ॑ और थीं, परंतु चित्रलेखा के रूप लावण्य में राजा वीरभद्र ऐसे उलझे कि दूसरी रानियों के लिए उनके पास समय कम पड़ने लगा। रानियों की छोटी-छोटी शिकायतों ने धीरे-धीरे कलह का रूप ले लिया। इस वजह से राजा वीरभद्र सिंह परेशान रहने लगे, जिसका प्रभाव उनके राज्य कार्यों पर पड़ने लगा।
इन सभी मानसिक तनावों से निकलने के लिए राजा वीरभद्र सिंह, चित्रलेखा के साथ भ्रमण पर निकले थे, तब उनका काफिला इस गाॅ॑व हरिपुर से गुजरा। रानी चित्रलेखा को यहाॅ॑ की सुंदरता इतनी भाई, कि उन्होंने राजा से यहाॅ॑ बसने की इच्छा जाहिर कर दी। विवाह के पश्चात रानी चित्रलेखा ने राजा से पहली बार कुछ मांगा था। राजा वीरभद्र सिंह इंकार ना कर सके। उनकी आज्ञा से ही इस पहाड़ की चोटी पर रानी चित्रलेखा के लिए महल का निर्माण करवाया गया। उसके बाद रानी चित्रलेखा इसी महल में रहने लगी।
समय बीतने के साथ आसपास के इलाकों से लोग आश्चर्यजनक रूप से गायब होने लगे। इसकी शिकायत राजा वीरभद्र सिंह तक भी पहुॅ॑ची। बहुत खोजबीन करने के बाद भी अपराधी किसी की पकड़ में नहीं आया। इस बीच राजा वीरभद्र सिंह को रानी चित्रलेखा की गतिविधियाॅ॑ संदिग्ध सी लगीं। दिल पर पत्थर रखकर उन्होंने रानी चित्रलेखा के पीछे गुप्तचर लगवाए, किंतु वे गुप्तचर भी गायब हो गए। राजा वीरभद्र सिंह को रानी चित्रलेखा पर संदेह हो चुका था, पर वो उन्हें रंगे हाथों पकड़ना चाहते थे और आखिर एक दिन उन्होंने उसे पकड़ ही लिया, जब वो गुप्त रूप से तंत्र-साधना कर रही थी।
महल में सबको पता चल चुका था कि रानी चित्रलेखा एक डायन थी। उस समय तांत्रिक श्रेष्ठ देवेंद्र का नाम बहुत ही प्रसिद्ध हो चुका था। क्योंकि वे इसी गाॅ॑व के रहने वाले थे, इसलिए राजा वीरभद्र सिंह ने उनसे गुप्त रूप से संपर्क किया। अंत में कठिन प्रयासों के बाद तांत्रिक श्रेष्ठ देवेंद्र ने उस डायन के जादू पर काबू पा लिया। कहा जाता है कि रानी चित्रलेखा की काली शक्तियों को तंत्र मंत्र से बाॅ॑ध दिया गया और उसे जिंदा जला दिया गया। रानी चित्रलेखा के जाते ही यह महल वीरान हो गया, क्योंकि किसी ने भी इस महल में रहने से इंकार कर दिया। धीरे धीरे ये महल चित्रलेखा के नाम से बदनाम हो गया और लोगों ने उसकी कहानी को भी उसकी तरह मिटा देने का फैसला किया। इसलिए लोगों ने ये बात तो फैलाई कि इस महल में डायन कैद है, लेकिन बाकी की कहानी लोगों के द्वारा विस्मृत कर दी गई। सच बात तो ये है कि चित्रलेखा की ये कहानी यहाॅ॑ आज कोई नहीं जानता है। लोग सदियों से सिर्फ डायन के बारे में ही बातें करते हैं और सबका मानना है कि उस डायन के बारे में बात करने या उसका नाम लेने से उसकी शक्तियाॅ॑ और भी शक्तिशाली होती हैं, इसलिए लोग उसका नाम लेना या उसके बारे में बात करना नहीं चाहते।" अपनी बात पूरी करके आशुतोष ने एक गहरी साॅ॑स ली।
(राज: भाग १४ - चित्रलेखा)
आशुतोष ने प्रतिक्रिया हेतु अपने सामने बैठे सभी चेहरों की ओर देखा। सभी स्तब्ध से चुपचाप अपनी कुर्सी पर बैठे हुए थे। आखिरकार महल की डायन की कहानी सबको मालूम हो गई थी। वो कहानी जो सब छुपाने की कोशिश कर रहे थे या शायद कोई जानता ही नहीं था। क्या सचमुच वो डायन लौट आई थी? क्या फिर से हरिपुर पर डायन के काले जादू का काला साया मंडरा रहा था? आखिर वो वापस कैसे लौट आई?
सारे सवालों के जवाब जानने के लिए साथ बनाए रखें।
क्रमशः-
(अगला भाग सोमवार को आएगा 🙏)
Shaba